इन ग़जलों में वो सुकून है, जो सिर्फ अपने घर की चारदीवारी में मिलता है

हिंदी और उर्दू बहनें-बहनें कैसे हुईं? आज की पीढ़ी पता नहीं ये बात किस हद तक समझती है…समझती है भी या नहीं…मगर इस सवाल का जवाब अबरार अहमद की ग़जलों के जरिये बेहद आसानी से ढूंढा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में पले-बढ़े अबरार लखनऊ विश्वविद्यालय से मीडिया की पढ़ाई करने के बाद अब चंडीगढ़ में पत्रकारिता कर रहे हैं. मगर इन सब दुनियावी आयामों के बीच उनकी ग़जलें उन्हें एक अलग ही मुकाम पर ले जाती हैं. हर एक ग़जल को पढ़कर लगता है, जैसे एक बच्चा कच्ची उम्र में ही पक्की बातें करना सीख गया हो और पक्की उम्र के लोग उसकी बातों को सुनकर फिर से बचपन में लौट जाने को मजबूर हो जाएं.
[ ”धूप बहुत है आंखों को धो लिया जाये
अरसा हुआ जी भर के रो लिया जाये।।
सफ़र लंबा है और कोई साथ नहीं जाने वाला
घड़ी दो घड़ी के लिए तो सो लिया जाये।।
सबके अपने गुनाह हैं अपनी नेकियां
क्यों न बगीचे में आइना बो लिया जाये।।” ]
[मिला बहुत मगर कभी खुला ही नहीं
नम था अंदर से बहुत, जला ही नहीं।
कोशिशें हमने भी बहुत कीं दिल लगाने की
पर तुम्हारे जैसा फिर कोई मिला ही नहीं।
मैं तेरी रूह से नज़्म सुनता रहा वहां शब भर
जहां जिस्मों के मिलने पर फ़ासला ही नहीं।
तमाम उम्र चला गुनाहों के पैरहन लेकर
आज जब निकला तो काफिला ही नहीं।।]
शब= रात
पैरहन= लिबास
[ अब किताबों में सूखे हुए गुलाब नहीं मिलते
तुम्हारे दौर में मुहब्बतों के हिसाब नहीं मिलते।।
ये सवाल तो जायज़ है इश्क़ वाले नए परिंदों से
अब इत्र से महकते ख़तों के जवाब नहीं मिलते।।
जब से इश्क़ मोबाइल हुआ है मेरे शहर में यारों
गलियों में आफ़ताब, छतों पर माहताब नहीं मिलते।। ]
आफ़ताब = सूरज
माहताब = चाँद
[ इस मिट्टी में अभी खुश्बू-ए-यार बाक़ी है
दिल अब भी कहता है कि प्यार बाक़ी है
रह-रह के धड़क उठता है दिल आहट से तुम्हारी
लगता है यूँ कि अब भी ‘अबरार’ बाक़ी है
फिर लौट के आ जाओ उसी मोड़ पर रहबर
जिस बात पर रूठे थे वो तकरार बाक़ी है
इस उम्मीद पे अब तलक चल रही हैं मिरी सांसें
तेरी साँसों से अब भी इनका करार बाक़ी है ]
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अबरार अहमद अमर उजाला चंडीगढ़ में कार्यरत हैं. उनकी कई रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं और साहित्यिक वेबसाइट्स पर प्रकाशित हो चुकी हैं।
उऩका मोबाइल नंबर है-7011598880
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