जाने-माने कवि द्वारिका प्रसाद महेश्वरी की इस कविता को पढ़कर मिलती है उम्मीद की रोशनी और आशा का किनारा
महामारी का ये वक्त सिखा रहा है कुछ ऐसे सबक…

इतिहास से हमें सबक सीखने चाहिए, मगर जिंदगी की तेज रफ्तार हमें ये सबक सीखने का मौका ही नहीं देती। कोरोना वायरस से दुनिया भर में फैली महामारी ने एक बार ये सारे सबक याद दिला दिए हैं। हमें रुकना सिखा दिया है। अब से कुछ दिनों पहले की ही बात है हमारे लिए एक पल को भी रुकना कितना मुश्किल था। मगर अब सब रुक गया है। ऐसे रुके हुए, ठहरे हुए बैठकर सोच रहे हैं, तो सामने कई तरह के ख्य़ाल उमड़-घुमड़ रहे हैं। ये ना किया होता तो अच्छा होता, ये कर लेते तो बेहतर था। मगर वक्त है कि हमें इन सब बातों से आगे बढ़कर जिंदगी की गहराई में झांकने को उकसा रहा है। गहराई जहां निराशा का अंधेरा है, तो आशा का उजाला भी। कविता की दुनिया में इस उजाले और आशा को द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने बहुत खूबसूरती से शब्दों में पिरोया है। आज Thursday Therapy में उन्हीं की एक कविता जलाते चलो ये दिये स्नेह भर-भर।
जलाते चलो ये दीये स्नेह भर-भर
कभी तो धरा का अंधेरा मिटेगा।
भले शक्ति विज्ञान में है निहित वह
कि जिससे अमावस बने पूर्णिमा-सी;
मगर विश्व पर आज क्यों दिवस ही में
घिरी आ रही है अमावस निशा-सी।
बिना स्नेह विद्युत-दीये जल रहे जो
बुझाओ इन्हें, यों न पथ मिल सकेगा
जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की
चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी;
तिमिर की सरित पार करने तुम्हीं ने
बना दीप की नाव तैयार की थी।
बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर
कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा
युगों से तुम्हीं ने तिमिर की शिला पर
दीये अनगिनत हैं निरंतर जलाये;
समय साक्षी है कि जलते हुए दीप
अनगिन तुम्हारे पवन ने बुझाये।
मगर बुझ स्वयं ज्योति जो दे गये वे
उसी से तिमिर को उजाला मिलेगा
दीये और तूफान की यह कहानी
चली आ रही और चलती रहेगी;
जली जो प्रथम बार लौ दीप की
स्वर्ण-सी जल रही और जलती रहेगी।
रहेगा धरा पर दीया एक भी यदि
कभी तो निशा को सबेरा मिलेगा
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